जनक महराज सीतादेवी के पिताजी, और भगवान श्री राम के ससुर भी हैं । सीतादेवी जनक महराज की पुत्री होने के कारण जानकी नाम से भी जानी जाती है ।

जनक महराज सिर्फ एक राजा ही नहीं बल्कि, एक तपस्वी, ज्ञानी और विद्वान भी हैं। वे अपने जिंदगी भर पुण्य कार्यों के सिवा, अन्य किसी भी तरह की विचार नहीं किया करते थे। सभी अन्य मानवों की तरह एक दिन उन्होंने भी अपने भौतिक शरीर को त्याग किए। लेकिन वे पुण्यवान होने के कारण, उन्हें मोक्ष मिली और उनके आत्मा को ले जाने के लिए एक स्वर्ण- रथ आई। जनक महराज इसमें बैठकर मोक्ष मार्ग पर सफर कर रहे थे।
रास्ते में वे,नर्क लोक से पार कर रहे थे। वहां उन्हें अत्यंत वेदनापूर्वक आवाजें सुनाई दी। उन्होंने सारथी से रथ को रोकने को कहा। उन्हें पता चला कि जो भूलोक में पाप कर्म किए हैं, उन्हें,अपने – अपने पापों के अनुसार दंड भुगतना पड़ रहा है।
जनक महराज दयालु होने के कारण , इन पापियों के दर्द भरी रोदन सुनकर आंसू बहाने लगे। उन्होंने सारथी से अपने को नरक लोक ले जाने की विनती की। सारथी को बड़ी आश्चर्य हुई, कोई भी व्यक्ति मोक्ष को छोड़ कर नर्क में नहीं जाना चाहता है। वे यमराज को जनक महराज के संदेश को बताया। यमराज तुरंत वहां पधारे। और जनक से,” यदि आप नर्क के अंदर आएंगे तो, आपके पुण्य – फल आधा हो जाएगा। और इसका नतीजा यह होगा कि पापियों का दंड भी आधा हो जाएगा।”
जनक महराज ने यमराज से विनम्रता के साथ कहा कि, ” इन लोगों को छोड़ कर मैं मोक्ष लोक में चैन से नहीं रह सकता हूं। मैं अपने सारे पुण्य फल इन लोगों को दे देता हूं। और यहीं उनके साथ रहकर इन सब लोगों को मोक्ष मार्ग पर चलने के लिए सहारा करता हूं। ” इसे सुनकर कालदेव कुछ नहीं बोल पाए। महान् लोग सिर्फ औरों की भलाई ही करते रहते हैं। इन्हें कभी भी स्वार्थ विचार नहीं होती है।